जब वह बालक थे
आलमी टाइम्स।
हम लोग 2 अक्टूबर को बड़ी धूम से मनाते है। 2 अक्टूबर यानि हमारे राष्टपिता यानि बापू यानि गांधी जी के जन्म का दिन।आज का लेख एक ऐसे बच्चे के जीवन पर है जो 2 अक्टूबर को ही पैदा हुआ था। यह उसके बचपव के जीवन की एक घटना पर है।
माघ मेले की भीड़ जोरों पर थी। संगम के आस पास गंगा और जमना के किनारों पर दुर दूर तक लोग दिखाई देते थे। त्रिवेणी पर स्नान करने के लिये हर प्राणी प्रयास कर रहा था।
इसी भीड़ में एक गरीब परिवार भी था। एक माँ और उसकी गोद में एक कोमल सा हंसता हुआ बच्चा भी इस परिवार के साथ थे।
वह माँ इस बच्चे को यहाँ इस लिये लेकर आई थी कि वह त्रिवेणी में स्नान कर के त्रिवेणी माँ को दिया हुआ वचन पूरा कर सके जो उसने कई वर्ष पूर्व दिया था। उसे सन्तान न होती थी। अब जब गोद भर गई तो वह खुशी खुशी संगम स्नान करने आई थी।
भीड़ किनारे लगी नौकाओं में चढ़ रही थी। बच्चा भीड़ में परेशान हो उठा।
वह चीख चीख कर रोने लगा। माँ ने अपने लाल को अपने कन्धों से चिपका लिया। लेकिन ईश्वर की न जाने क्या इच्छा थी एक भीड़ का ऐसा रेला आया कि माँ के कन्धों से चिपका हुआ बच्चा छूट गया और भीड़ के समुद्र में कहीं गुम हो गया।
माँ पागल हो उठी। हाय मेरा लाल कहाँ गया। वह बिलबिला उठी - हे ि़त्रवेणी माता तुम ने यह कैसा दान दिया था जो देकर छीन लिया। वह व्याकुल हो गई - कोई मेरे लाल को ढून्ढ लावे। उसके रोने से सुनने वालों की आँखों में भी आँसू आ गये।
उधर एक ग्वाला जो त्रिवेणी माँ से सन्तान की भिक्षा मांगने आया था क्या देखता है कि उसकी नाव में एक नन्हा सा बच्चा पड़ा हुआ है। वह खुशी से झूम उठा। हे - ईश्वर तेरी लीला न्यारी है। तूने अपने भक्त को यहीं सन्तान दे दी।
उधर माँ के परिवार वाले एक दिन खोजते हुए उस गाँव तक पहुंचे। बच्चे को जीवित देख सब की जान में जान आई। मगर वहाँ तो झगड़ा उठ खड़ा हुआ। वह ग्वाला किसी प्रकार बच्चा देने पर राजी न होता था। उसका कहना था कि यह तो भगवान की देन है। यह मुझे मिला है।
बात बहुत आगे नहीं बढ़ी। आखिर वह इस बात पर राजी हो गया कि बच्चे को अब तक उसने जितना दूध पिलाया है उसका दाम ले ले और बच्चा वापस कर दें। दो रूपये में माँ को अपना लाल वापस मिल गया।
बहुत दिनों के बाद नदी किनारे एक बालक खड़ा है। नदी बाढ़ के कारण कुछ चढ़ी हुई है। उसपार छोटी सी पाठशाला है जहाँ बच्चे को पहुंचना है। नाव छुटने ही वाली है। मगर गरीब बालक के पास पैसे कहाँ। वह उदास उदास नाव से कुछ दूर खड़ा हो जाता है।
नाव यात्रियों को लेकर चल पड़ी अब वह बालक किनारे पर आया। कुर्ता उतार उसमें अपनी किताब लपेटी। उसे सिर पर बांधा और नदी में छलांग लगा दी। बालक को पाठशाला पहुंचना था। वह ज्ञान और शिक्षा का प्यासा था। गरीबी उसके रास्ते की दीवार न बन सकी। वह तैर कर पाठशाला चला जाता था। उसमें साहस था। लक्ष्य को पूरा करने की हिम्मत थी।
बड़ा होकर भीड़ में खो जाने वाला बालक आजादी के मतवालों की भीड़ में गुम हो गया। नदी में कूद जाने वाला बालक आजादी की लड़ाई की आग में कूद गया। उसे एक लक्ष प्राप्त करना था। जेल, लाठी और गोलियों की दीवारें उसका रास्ता न रोक सकीं। उसने अपने दूसरे महान साथियों के साथ देश को आजाद करा ही लिया।
वह माँ की गोद से बिछुड़ जाने वाला लाल बहादुर भी था। आज भी हम उसे ''लाल बहादुर'' ही कहते हैं। वह विद्या का दीवाना था। वह 'शास्त्री' भी हो गया। यह कहानी भारत के दुसरे प्रधान मन्त्री स्वर्गीय 'लाल बहादुर शास्त्री' जी की है। वह 2 अक्टूबर 1904 में पैदा हुए थे।
जिसमें साहस हो वह अपना लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेता है। अपनी मन्जिल जरूर पा लेता है।